वाराणसी, मुख्य संवाददाता।
हिंदी साहित्य के संवेदनशील हस्ताक्षर, लेखक आनंद परमानंद को उनकी जयंती के अवसर पर गुरुवार की शाम केंद्रीय हिंदी संस्थान के सभागार में एक भावभीनी स्मृति गोष्ठी में याद किया गया। वक्ताओं ने उन्हें ‘अहंकारशून्य साहित्यकार’ की संज्ञा देते हुए उनकी सादगी, सरलता और साहित्यिक प्रतिबद्धता को श्रद्धांजलि अर्पित की।
साहित्य और संस्कृति के प्रति जीवन पर्यंत समर्पण
प्रमुख वक्ताओं ने आनंद परमानंद को एक ऐसे साहित्यकार के रूप में चित्रित किया, जिनकी लेखनी में ग्राम्य संवेदना, श्रमशील संस्कृति और मानवीय मूल्यों की स्पष्ट झलक मिलती थी। उन्होंने न केवल लेखन में उत्कृष्टता प्राप्त की, बल्कि सांस्कृतिक आंदोलनों में भी सक्रिय भागीदारी निभाई।
इस अवसर पर वरिष्ठ आलोचक और साहित्यकार डॉ. अशोक श्रीवास्तव ने कहा,
“आनंद परमानंद जीवन भर साहित्य को समर्पित रहे, लेकिन कभी भी अपने विचारों को थोपने का प्रयास नहीं किया। वे विचारों की शालीनता के प्रतीक थे।”
विचारशील वक्ताओं की गरिमामयी उपस्थिति
गोष्ठी में डॉ. मृदुला, डॉ. रामशंकर, डॉ. सुगंधा शर्मा सहित अनेक प्रतिष्ठित साहित्यकारों, लेखकों और शोधार्थियों ने भाग लिया। वक्ताओं में प्रमुख रूप से डॉ. मंजीरी श्रीवास्तव, डॉ. रामगोविंद चौधरी, आलोक राय, डॉ. सुनील कुमार “भारतेन्दु”, सुरेंद्र शर्मा “अंकुर”, जयंती प्रसाद चतुर्वेदी आदि ने आनंद परमानंद के बहुविध साहित्यिक योगदान पर विस्तार से चर्चा की।
संवेदनशील लेखक की विरासत को संरक्षित रखने का संकल्प
सभी वक्ताओं ने इस बात पर बल दिया कि आनंद परमानंद का साहित्य भविष्य की पीढ़ियों के लिए एक प्रेरणा स्रोत है, और उनके लेखन को विद्यालयों व विश्वविद्यालयों में पढ़ाया जाना चाहिए। उनके विचार आज के सामाजिक परिप्रेक्ष्य में और अधिक प्रासंगिक हो गए हैं।
“Sahitya Today” की ओर से विशेष टिप्पणी
आनंद परमानंद जैसे लेखक साहित्य की उस शृंखला के प्रतिनिधि हैं, जहाँ विचार, भावना और भाषा त्रिवेणी के रूप में एकाकार होते हैं। उनके व्यक्तित्व में विनम्रता और वैचारिक दृढ़ता का जो समन्वय था, वह आज दुर्लभ है।
उनकी स्मृति में आयोजित यह गोष्ठी न केवल श्रद्धांजलि थी, बल्कि यह भी संकेत थी कि साहित्य में सादगी, संवेदना और समर्पण आज भी पूज्य हैं।
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